दुःख की पिछली रजनी बीच .........कभी मत इसको जाओ भूल , - पद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।

दुःख की पिछली रजनी बीच 
विकसता सुख का नवल प्रभात, 
एक परदा यह झीना नील
 छिपाये है जिसमें सुख गात।

जिसे तुम समझो हो अभिशाप, 
जगत की ज्यालाओं का मूल,
 ईश का वह रहस्य वरदान 
कभी मत इसको जाओ भूल ,


संदर्भ : - यह पद्यांश जयशंकर प्रसाद की कविता "कामायनी" से लिया गया है। जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख कवि थे, और "कामायनी" उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्य रचना है। यह महाकाव्य मनु और श्रद्धा की कथा के माध्यम से मानव जीवन के विविध पहलुओं का गहन दर्शन प्रस्तुत करता है। "कामायनी" में प्रसाद ने जीवन के दुःख और सुख, अभिशाप और वरदान, और अंधकार और प्रकाश के बीच के संबंध को बड़े ही गहन और दार्शनिक ढंग से व्यक्त किया है।

व्याख्या : - 

इस पद्यांश में कवि ने दुःख और सुख के बीच के संबंध को दर्शाया है। पहली पंक्ति "दुःख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात" में कवि यह कहते हैं कि जैसे अंधकार के बाद ही सुबह का उदय होता है, वैसे ही जीवन के दुःखों के बाद ही सुख का नया प्रभात आता है। यहां कवि दुःख को रात के अंधकार के रूप में देखते हैं और सुख को उस अंधकार के बाद उगने वाले सूर्य की नई किरण के रूप में।

दूसरी पंक्ति "एक परदा यह झीना नील छिपाये है जिसमें सुख गात" में कवि ने यह दर्शाया है कि यह सुख और दुःख एक-दूसरे से इतने निकट हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल है। इस पंक्ति में "झीना नील" उस धुंधले पर्दे को इंगित करता है जो दुःख और सुख के बीच में है। यह पर्दा बहुत ही पतला है, और इसके पीछे सुख छिपा हुआ है।

तीसरी पंक्ति "जिसे तुम समझो हो अभिशाप, जगत की ज्यालाओं का मूल" में कवि यह कहते हैं कि जिस दुःख को तुम अभिशाप समझते हो, वह वास्तव में संसार की समस्त क्रूरताओं का मूल कारण नहीं है। यह पंक्ति हमें यह सिखाती है कि जीवन में दुःख को अभिशाप की तरह नहीं देखना चाहिए, क्योंकि यह दुःख ही है जो हमें जीवन की वास्तविकता का सामना करने के लिए तैयार करता है।

अंतिम पंक्ति "ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जाओ भूल" में कवि ने दुःख को ईश्वर का रहस्यमय वरदान बताया है। वे यह कहना चाहते हैं कि दुःख वास्तव में ईश्वर का एक अनमोल उपहार है, जो हमें जीवन की गहराई और वास्तविकता से परिचित कराता है। हमें इसे भूलना नहीं चाहिए, बल्कि इसे स्वीकार करना चाहिए और इसके माध्यम से जीवन के सुख की प्राप्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए।

               इस पद्यांश में जयशंकर प्रसाद ने जीवन के दुःख और सुख के बीच के गहरे और दार्शनिक संबंध को प्रस्तुत किया है। उन्होंने यह संदेश दिया है कि दुःख को अभिशाप नहीं समझना चाहिए, बल्कि इसे जीवन के एक अनिवार्य और सकारात्मक पहलू के रूप में स्वीकार करना चाहिए। यह पद्यांश हमें यह सिखाता है कि दुःख के बाद ही सुख का उदय होता है, और यह दोनों जीवन के अटूट हिस्से हैं।

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