भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए ।

भारतेन्दु युग (1857-1885) हिंदी साहित्य का वह कालखंड है जिसे हिंदी नवजागरण का प्रारंभिक दौर माना जाता है। इस युग के प्रमुख लेखक भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1850-1885) थे, जिनके नेतृत्व में हिंदी साहित्य ने आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाया। इस समय उपन्यास विधा का प्रारंभ हुआ और उसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होने लगीं। भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की प्रवृत्तियाँ उस समय के समाज, संस्कृति, राजनीति और नैतिक विचारधाराओं का प्रतिबिंब हैं। इन उपन्यासों का प्रमुख उद्देश्य समाज को जागरूक करना और सुधारवादी दिशा में प्रेरित करना था। इस लेख में हम इन उपन्यासों की प्रवृत्तियों पर विस्तृत रूप से चर्चा करेंगे।

bhaaratenduyugeen upanyaason kee pravrttiyon par prakaash daalie

1. सामाजिक सुधारवाद

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति सामाजिक सुधारवाद थी। इस युग के उपन्यासकारों ने अपने लेखन के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा पुनर्विवाह का विरोध, जातिगत भेदभाव, स्त्रियों की दासता आदि के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। उस समय का समाज विभिन्न सामाजिक कुरीतियों से ग्रसित था और इन कुरीतियों के कारण समाज का नैतिक पतन हो रहा था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जिन्होंने हिंदी साहित्य के इस युग को दिशा दी, अपने लेखन में समाज सुधार के उद्देश्य को विशेष रूप से स्थान दिया। उनके उपन्यासों में सामाजिक मुद्दों पर तीखा प्रहार किया गया और समाज को सुधार की दिशा में प्रेरित किया गया।

उदाहरण के लिए, 'परिवर्तिनी' उपन्यास में विधवा विवाह के मुद्दे पर चर्चा की गई है। इस उपन्यास में विधवा स्त्री के जीवन की कठिनाइयों और समाज की क्रूरता का चित्रण किया गया है, जो समाज में सुधार की आवश्यकता को दर्शाता है। इसी प्रकार 'प्रेमघन' उपन्यास में दहेज प्रथा और उसके सामाजिक प्रभावों का विरोध किया गया है।

2. राष्ट्रवाद और स्वदेशी चेतना

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में राष्ट्रवाद और स्वदेशी चेतना का प्रबल उदय हुआ। भारत में 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध और स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। इस युग के उपन्यासकारों ने अपने लेखन के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीयता और स्वदेशी विचारधारा को बढ़ावा दिया। इन उपन्यासों का उद्देश्य न केवल मनोरंजन था, बल्कि समाज में राष्ट्रवादी चेतना का जागरण भी था।

उपन्यासों में भारतीय संस्कृति, भाषा और परंपराओं का गौरवपूर्ण चित्रण किया गया और अंग्रेजी शासन की आलोचना की गई। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के उपन्यासों में यह राष्ट्रवादी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से समाज को जागरूक करने और भारतीय संस्कृति को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

3. नारी विमर्श और स्त्री जागरूकता

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में नारी विमर्श एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के रूप में उभरकर सामने आया। उस समय समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उन्हें शिक्षा और अधिकारों से वंचित रखा जाता था। इस युग के उपन्यासकारों ने स्त्रियों की इस स्थिति पर ध्यान दिया और उनके अधिकारों, शिक्षा और स्वाधीनता के प्रति समाज को जागरूक करने का प्रयास किया।

इस युग के उपन्यासों में नारी पात्रों का चित्रण अत्यंत सशक्त और आत्मनिर्भर रूप में किया गया। उपन्यासों में स्त्रियों के अधिकार, शिक्षा, विवाह और उनकी स्वतंत्रता के विषयों पर चर्चा की गई। उदाहरण के लिए, 'परिवर्तिनी' उपन्यास में नारी पात्रों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर जोर दिया गया है। इसी प्रकार 'सुंदरी' उपन्यास में स्त्री पात्र का चित्रण उसकी मानसिक और भावनात्मक स्वतंत्रता को दर्शाता है।

4. आदर्शवाद और नैतिकता

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की एक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति आदर्शवाद और नैतिकता की रही। इस युग के उपन्यासकारों ने समाज को आदर्श नैतिकता के सिद्धांतों का पालन करने की प्रेरणा दी। उपन्यासों में आदर्शवादी पात्रों का चित्रण किया गया, जो सत्य, ईमानदारी, कर्तव्य और परोपकार जैसे गुणों से परिपूर्ण होते थे। इन उपन्यासों का उद्देश्य समाज में नैतिक मूल्यों को स्थापित करना और लोगों को नैतिक आचरण की ओर प्रेरित करना था।

उपन्यासों में नैतिक शिक्षा का उद्देश्य विशेष रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, 'वृंदावनलाल वर्मा' के उपन्यासों में नैतिकता और आदर्शवादी दृष्टिकोण का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इस प्रकार, भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में नैतिकता का अत्यधिक महत्व था।

5. भाषा और शैली में सादगी

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की भाषा और शैली में सादगी और सरलता थी। इस युग के उपन्यासकारों ने सामान्य जनमानस की भाषा को अपनाया, जिससे उपन्यासों का प्रचार और प्रसार व्यापक हुआ। भाषा का उद्देश्य पाठकों तक संदेश को स्पष्ट और प्रभावी ढंग से पहुँचाना था। इसलिए, भाषा में अधिक क्लिष्टता या अलंकारिकता से बचा गया और संवादों में यथार्थवादी शैली अपनाई गई।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपने उपन्यासों में भाषा की सादगी और स्पष्टता पर विशेष ध्यान दिया। उनके उपन्यासों में हिंदी और उर्दू शब्दों का सम्मिश्रण देखा जाता है, जो उस समय की सांस्कृतिक विविधता को भी दर्शाता है। भाषा की सादगी के कारण भारतेन्दुयुगीन उपन्यास व्यापक रूप से पढ़े जाने लगे और जनता के बीच लोकप्रिय हुए।

6. प्रकृति चित्रण और रूमानी तत्व

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में प्रकृति का चित्रण और रूमानी तत्व भी महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों के रूप में दिखाई देते हैं। उस समय के उपन्यासकारों ने प्रकृति को केवल एक सजावटी तत्व के रूप में नहीं, बल्कि कथा की भावनाओं और पात्रों की मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया। प्राकृतिक सौंदर्य, ऋतु-परिवर्तन, वन्य जीवन आदि का चित्रण उपन्यासों में देखने को मिलता है, जो पाठकों को उस समय की प्राकृतिक छवियों से परिचित कराता है।

रूमानी तत्वों का प्रयोग भी उपन्यासों में किया गया, जो पात्रों के प्रेम, भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने का माध्यम बनता है। रूमानी दृश्य और संवाद उपन्यासों को भावुक और संवेदनशील बनाते हैं। यह प्रवृत्ति भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में यथार्थ और कल्पना के संतुलन को बनाए रखती है।

7. धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण

भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रवृत्ति भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस युग के उपन्यासकारों ने भारतीय धार्मिक परंपराओं, वेदों, पुराणों और शास्त्रों के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास किया। उपन्यासों में धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का गुणगान किया गया और भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता का बोध कराया गया।

इस प्रवृत्ति का उद्देश्य भारतीय समाज को उसकी जड़ों से जोड़ना और पश्चिमी प्रभाव से उसे बचाना था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने अपने उपन्यासों में धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को सुदृढ़ किया और समाज को भारतीयता की भावना से ओत-प्रोत करने का प्रयास किया।

8. आधुनिकता और यथार्थवाद का उदय

हालांकि भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों में आदर्शवाद का प्रमुख स्थान था, लेकिन यथार्थवाद और आधुनिकता का भी प्रारंभिक उदय इसी युग में हुआ। इस युग के उपन्यासकारों ने समाज के यथार्थ चित्रण का प्रयास किया और मानव जीवन की वास्तविकताओं को उपन्यासों में प्रस्तुत किया। यथार्थवादी दृष्टिकोण ने उपन्यासों को अधिक प्रासंगिक और सामयिक बनाया, जिससे पाठकों को समाज और जीवन के विविध पहलुओं को समझने में मदद मिली।

इस यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ आधुनिकता की अवधारणा भी उभरने लगी। उपन्यासों में आधुनिक समाज की समस्याओं, नए विचारों और सामाजिक परिवर्तनों को स्थान दिया गया। यह प्रवृत्ति आगे के साहित्यिक युगों में और अधिक विकसित हुई।


            भारतेन्दुयुगीन उपन्यासों की प्रवृत्तियाँ उस समय के समाज, संस्कृति और राजनीति का प्रतिबिंब थीं। इन उपन्यासों का उद्देश्य केवल मनोरंजन प्रदान करना नहीं था, बल्कि समाज को जागरूक करना, नैतिकता की स्थापना करना और राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करना था। सामाजिक सुधारवाद, नारी जागरूकता, आदर्शवाद, यथार्थवाद, धार्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसे विविध पहलुओं ने इस युग के उपन्यासों को समृद्ध और प्रासंगिक बनाया। इन प्रवृत्तियों के कारण ही भारतेन्दुयुगीन उपन्यास हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और आज भी साहित्यिक अध्ययन और समाजशास्त्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

Post a Comment

Previous Post Next Post