है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान; ..........असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार। - इस पद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।

है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवर-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल; भूधर ज्यों धन-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-जय;
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य श्रान्त एक भी. अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त
कल लड़ने को हो रहा विकल वार बार-बार असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।


प्रस्तुत पद्यांश जयशंकर प्रसाद की महाकाव्यात्मक कृति कामायनी से लिया गया है। इस काव्य के माध्यम से कवि ने मानव जीवन के मानसिक द्वंद्व, संघर्ष और आत्मचिंतन का सजीव चित्रण किया है। यह अंश उस अवस्था को दर्शाता है जब व्यक्ति विपत्तियों के चक्रव्यूह में फंसकर निराशा और संशय से घिरा होता है। यहाँ कवि ने रात्रि के अंधकार, समुद्र की गर्जना, और मनुष्य के अंतर्द्वंद्व को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत किया है।

है अमानिशा; उगलता गगन घन अन्धकार, खो रहा दिशा का ज्ञान; स्तब्ध है पवर-चार
इस पंक्ति में कवि ने रात्रि के अन्धकारमय और भयावह वातावरण का वर्णन किया है। 'अमानिशा' का मतलब है काली रात, जो गगन में घनघोर अन्धकार उगल रही है। दिशा का ज्ञान खो रहा है, जिससे वातावरण और भी ज्यादा भयावह हो गया है। 'स्तब्ध है पवर-चार' का अर्थ है कि चारों तरफ की गति रुक गई है, सब कुछ ठहर गया है, जैसे कि समय ने खुद को रोक लिया हो। यह पंक्ति राम के मन में व्याप्त अन्धकार और अशांति को भी दर्शाती है।

अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल; भूधर ज्यों धन-मग्न; केवल जलती मशाल
इस पंक्ति में कवि ने विशाल समुद्र की गरज को अप्रतिहत (अवरोध रहित) बताया है, जो राम के मन में उठती चिंता और भय को प्रकट करता है। 'भूधर ज्यों धन-मग्न' का अर्थ है कि पर्वत जैसा धैर्यवान व्यक्ति भी सम्पत्ति के मोह में पड़ सकता है, उसी तरह राम का मन भी संदेह और चिंता से प्रभावित हो रहा है। इस अन्धकार में केवल जलती मशाल ही प्रकाश का स्रोत है, जो उम्मीद और साहस का प्रतीक है।

स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय, रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-जय
कवि ने यहां भगवान राम को 'स्थिर राघवेन्द्र' कहा है, जो धैर्य और स्थिरता के प्रतीक हैं। लेकिन फिर भी, उनके मन में बार-बार संशय (संदेह) उठ रहा है। 'रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-जय' का अर्थ है कि संसार के जीवन में रावण की जय-जयकार बार-बार गूंज रही है, जो राम के मन को विचलित कर रही है। यह पंक्ति राम के आन्तरिक संघर्ष और भावनात्मक द्वंद्व को प्रकट करती है।

जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य श्रान्त एक भी. अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त
यहां कवि ने यह बताया है कि राम का हृदय, जो अब तक कभी किसी शत्रु द्वारा नहीं थका, आज उस पर भी संशय और संदेह का प्रभाव पड़ रहा है। 'अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त' का अर्थ है कि लाखों शत्रुओं का सामना करने के बावजूद, राम का मन अब युद्ध के विचार से दुराक्रान्त (पराजित) महसूस कर रहा है। यह उनकी मानसिक स्थिति का गहरा वर्णन है, जहां वे अपने संकल्प को लेकर संघर्ष कर रहे हैं।

कल लड़ने को हो रहा विकल वार बार-बार असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार
यह पंक्ति राम के मन की बेचैनी और असमर्थता को दर्शाती है। 'कल लड़ने को हो रहा विकल' का अर्थ है कि राम के मन में युद्ध को लेकर विकलता (व्याकुलता) है। बार-बार उनका मन हार मानने को उद्धत हो रहा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे मानसिक और भावनात्मक रूप से किस प्रकार के संघर्ष से गुजर रहे हैं।

जयशंकर प्रसाद का यह पद्यांश गहरी प्रतीकात्मकता और भावनात्मकता से परिपूर्ण है। इसमें कवि ने न केवल जीवन के अंधकारमय पक्ष का वर्णन किया है, बल्कि यह भी बताया है कि ऐसे समय में साहस, आत्मविश्वास और धैर्य का होना कितना आवश्यक है। यह हमें जीवन के संघर्षों से लड़ने और अपने अंदर के संशय को दूर करने की प्रेरणा देता है।

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