'लोभ और प्रीति' निबंध के भावों का विवेचन करते हुए शुक्लजी की मनोभाव संबंधी अवधारणाओं पर अपना मत प्रस्तुत कीजिए।

हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने निबंध 'लोभ और प्रीति' में मनुष्य के भावात्मक संसार के दो प्रमुख पक्षों — लोभ और प्रीति — का विश्लेषण किया है। यह निबंध मानव मनोविज्ञान के गहन अध्ययन का परिणाम है, जिसमें शुक्लजी ने न केवल इन दोनों भावों का वर्णन किया है, बल्कि उनके पारस्परिक संबंधों और प्रभावों पर भी विस्तृत चर्चा की है।


लोभ और प्रीति की अवधारणा:

'लोभ' और 'प्रीति' दोनों मनुष्य के भीतर उत्पन्न होने वाले गहरे भाव हैं, लेकिन ये परस्पर विरोधी भी हैं। लोभ का अर्थ होता है किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति की अत्यधिक और स्वार्थपूर्ण इच्छा। यह एक ऐसा भाव है जो व्यक्ति को स्वार्थी, आत्मकेंद्रित, और अत्यधिक संग्रहणशील बना देता है। लोभ का प्रभाव मनुष्य की नैतिकता और सामाजिकता पर नकारात्मक होता है; यह उसे भौतिक वस्तुओं की ओर आकर्षित करता है और आत्मिक शांति से वंचित करता है।

वहीं, प्रीति का भाव प्रेम, स्नेह, और आत्मीयता से भरा हुआ होता है। यह वह भाव है जो मनुष्य को दूसरों के प्रति करुणा, दया, और सहानुभूति से जोड़ता है। प्रीति का आधार स्वार्थ नहीं, बल्कि परमार्थ होता है; यह मनुष्य को आत्मीय संबंधों में बांधती है और उसे समाज के प्रति उत्तरदायी बनाती है।

'लोभ और प्रीति' निबंध के भावों का विवेचन:

शुक्लजी ने 'लोभ और प्रीति' निबंध में बताया है कि मनुष्य के जीवन में इन दोनों भावों की उपस्थिति हमेशा रहती है। ये दोनों भाव एक-दूसरे के विपरीत होते हुए भी परस्पर जुड़े हुए हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि जब लोभ अत्यधिक हो जाता है, तब वह प्रीति को नष्ट कर देता है। लोभ की प्रवृत्ति व्यक्ति को केवल अपने स्वार्थ तक सीमित कर देती है, जबकि प्रीति की प्रवृत्ति व्यक्ति को परोपकार, त्याग, और सेवा की दिशा में प्रेरित करती है।

शुक्लजी के अनुसार, लोभ का उदय उस समय होता है जब मनुष्य अपने भौतिक सुखों की वृद्धि के लिए संकुचित दृष्टिकोण अपनाता है। लोभ मनुष्य के आत्मिक और मानसिक विकास को अवरुद्ध करता है, क्योंकि यह उसे केवल संकुचित इच्छाओं की पूर्ति में ही उलझाए रखता है। इसके विपरीत, प्रीति का भाव आत्मिक और मानसिक उन्नति का साधन बनता है। प्रीति में शुद्धता, सरलता, और पारस्परिक विश्वास होता है। यह एक ऐसा भाव है जो समाज और परिवार के संबंधों को सुदृढ़ करता है।

शुक्लजी की मनोभाव संबंधी अवधारणाएँ:

शुक्लजी ने मनुष्य के मनोभावों की गहरी पड़ताल की है। उनकी मान्यता है कि मनुष्य के भीतर लोभ और प्रीति दोनों ही स्वाभाविक रूप से उपस्थित होते हैं, लेकिन समाज और परिवेश की स्थितियाँ इन भावों को प्रभावित करती हैं। शुक्लजी के अनुसार, मनुष्य के मनोभाव उसके संस्कारों, वातावरण, और अनुभवों के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं।

लोभ का स्वभाव और उसके प्रभाव:
शुक्लजी के विचार में, लोभ एक नकारात्मक और आत्मकेंद्रित भावना है जो मनुष्य को केवल अपने भौतिक और स्वार्थपूर्ण लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित करती है। लोभ मनुष्य के मन और आत्मा को अपवित्र कर देता है और उसे अन्याय, अत्याचार, और अनैतिकता की ओर ले जाता है। शुक्लजी ने इस भावना के विनाशकारी प्रभावों को रेखांकित करते हुए इसे समाज के पतन का कारण माना है। लोभ के कारण व्यक्ति दूसरों के अधिकारों का हनन करने से भी नहीं हिचकता और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

प्रीति का स्वभाव और उसके प्रभाव:
प्रीति, शुक्लजी के अनुसार, एक सकारात्मक और निर्मल भावना है जो मनुष्य को दूसरों के साथ जोड़ती है और समाज में सद्भाव, स्नेह, और सहयोग को प्रोत्साहित करती है। प्रीति का भाव व्यक्ति को अपनी सीमाओं से परे जाकर दूसरों के सुख-दुख में सहभागी बनाता है। शुक्लजी ने प्रीति को मानवीय संबंधों की नींव माना है। प्रीति व्यक्ति को आत्मिक शांति और संतोष प्रदान करती है, क्योंकि यह स्वार्थरहित होती है।

मनोभावों के संघर्ष की व्याख्या:
शुक्लजी का यह मानना है कि लोभ और प्रीति के बीच एक निरंतर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष मानव मन के भीतर भी होता है और समाज में भी। जब लोभ का भाव प्रबल होता है, तब प्रीति का स्थान संकीर्णता और स्वार्थ ले लेता है। इसके विपरीत, जब प्रीति का भाव प्रबल होता है, तब लोभ पीछे हट जाता है और व्यक्ति अपने आप को समाज और परिवार के कल्याण के लिए समर्पित कर देता है।

मनोभावों की उन्नति का मार्ग:
शुक्लजी के अनुसार, मनुष्य को अपने मनोभावों की उन्नति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह उन्नति तभी संभव है जब व्यक्ति अपने लोभ के भाव को नियंत्रित कर प्रीति की भावना को विकसित करने का प्रयास करे। शुक्लजी ने इसके लिए आंतरिक साधना, आत्मविश्लेषण, और नैतिक मूल्यों के पालन पर जोर दिया है। उनका मानना है कि मनुष्य को अपनी इच्छाओं और लालसाओं को सीमित करना चाहिए और दूसरों के प्रति दया, करुणा, और प्रेम का व्यवहार करना चाहिए।

शुक्लजी की अवधारणाओं पर अपना मत:

शुक्लजी की मनोभाव संबंधी अवधारणाएँ अत्यंत सारगर्भित और प्रासंगिक हैं। उन्होंने मनुष्य के मनोभावों के सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा यह सिद्ध किया है कि लोभ और प्रीति जैसे भाव न केवल व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं, बल्कि वे समाज की संरचना और उसकी प्रगति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

मेरा मानना है कि शुक्लजी ने मनुष्य के मनोभावों को जिस प्रकार से समझाया है, वह आज के समाज के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। आधुनिक युग में, जहाँ भौतिकता और स्वार्थपरता का बोलबाला है, वहाँ शुक्लजी की 'लोभ और प्रीति' के प्रति चेतावनी और इन भावों के संतुलन की आवश्यकता और अधिक प्रासंगिक हो जाती है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि शुक्लजी की अवधारणाएँ आज के समय में भी मानवीय मूल्यों और आदर्शों की पुनर्स्थापना के लिए प्रेरणादायक हैं। हमें चाहिए कि हम लोभ की भावना से स्वयं को मुक्त करें और प्रीति की भावना को अपने जीवन में स्थान दें, जिससे न केवल हमारा आत्मिक उत्थान हो, बल्कि समाज में भी शांति और सद्भावना का वातावरण बने।

इस प्रकार, 'लोभ और प्रीति' निबंध में शुक्लजी ने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, वे न केवल मनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि वे सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी अत्यधिक मूल्यवान हैं। इन विचारों को आत्मसात कर, हम अपने जीवन और समाज को एक उच्चतर स्तर पर ले जा सकते हैं।     

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