प्रश्न: मध्य युग के प्रगतिशील रचनाकार के रूप में कबीर का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर: कबीर दास भारतीय मध्ययुगीन संत कवियों में से एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपने समय की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं को चुनौती दी। कबीर का जन्म 15वीं सदी के वाराणसी में हुआ था और वे एक बुनकर के रूप में जीवन यापन करते थे। अपनी रचनाओं और विचारों के माध्यम से कबीर ने समाज में प्रचलित धार्मिक आडंबर, अंधविश्वास, जातिवाद और रूढ़ियों का विरोध किया। उनकी रचनाएँ न केवल तत्कालीन समाज का दर्पण प्रस्तुत करती हैं, बल्कि मानवता, समानता, और सहिष्णुता के मूल्यों को भी आगे बढ़ाती हैं। मध्ययुगीन भारतीय समाज में व्याप्त जटिलताओं के बीच कबीर का उदय एक प्रगतिशील रचनाकार के रूप में हुआ, जिन्होंने अपने समय की जड़ताओं को चुनौती दी।
मध्य युगीन भारतीय समाज और कबीर का प्रगतिशील दृष्टिकोण
मध्ययुगीन भारतीय समाज कई तरह की रूढ़ियों, कुरीतियों और धार्मिक विभाजनों से ग्रसित था। हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, जातिगत भेदभाव, पाखंड और अंधविश्वास जैसी समस्याएँ आम थीं। समाज में जाति के आधार पर ऊँच-नीच का विभाजन, धार्मिक आडंबर और बाहरी आडंबरों पर अधिक जोर दिया जा रहा था। कबीर ने इस समाज में प्रचलित धर्म के बाहरी स्वरूप को नकारा और आंतरिक भक्ति, सच्चे प्रेम और मानवता के महत्व को सामने रखा।
कबीर ने अपने समय की समस्याओं को देखते हुए प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया। उनके लिए धर्म का सार आत्मा की शुद्धि और परमात्मा से मिलन में था, न कि बाहरी आडंबरों और कर्मकांडों में। कबीर ने धार्मिक संकीर्णताओं को नकारते हुए एक ऐसा मार्ग दिखाया जो मानवता की एकता और समानता की बात करता है। उनका मानना था कि सच्ची भक्ति और प्रेम ही वास्तविक धर्म है, न कि मंदिर-मस्जिद जाने से ईश्वर की प्राप्ति होगी।
धार्मिक संप्रदायों पर कबीर की दृष्टि
कबीर ने हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों की कट्टरता और आडंबरों का विरोध किया। उन्होंने कहा कि भगवान को पाने के लिए मंदिरों और मस्जिदों में जाना आवश्यक नहीं है, बल्कि व्यक्ति के हृदय में ईश्वर का वास होता है। कबीर का यह दृष्टिकोण उनकी प्रगतिशीलता का प्रतीक है। उन्होंने दोनों धर्मों के अनुयायियों को समझाने का प्रयास किया कि ईश्वर एक ही है, चाहे उसे राम कहें या रहीम। उनके दोहे और साखियाँ इस दृष्टिकोण का प्रमाण हैं, जैसे:
"मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास में।"
इस तरह कबीर ने बाहरी पूजा-अर्चना के स्थान पर आंतरिक साधना और प्रेम की महत्ता को स्थापित किया।
जाति और वर्ग भेद पर कबीर का प्रहार
कबीर ने अपने समय में व्याप्त जातिवाद और वर्गभेद का कड़ा विरोध किया। समाज में जातिगत व्यवस्था के कारण मनुष्यों के बीच भेदभाव किया जाता था। कबीर ने इसे अमानवीय और अनैतिक बताया। उन्होंने जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए यह बताया कि मनुष्य की पहचान उसकी जाति या वर्ग से नहीं, बल्कि उसके कर्मों से होती है। उनके दोहे जातिवाद के प्रति उनके कड़े रुख को दर्शाते हैं:
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।"
कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से समाज को यह संदेश दिया कि जाति और वर्ग भेद इंसान की सच्ची पहचान नहीं है। सच्चा साधक वही है जो ज्ञान और प्रेम से भरा हुआ हो।
आडंबरों और अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज
कबीर ने धार्मिक आडंबरों और अंधविश्वासों का खुलकर विरोध किया। उनके अनुसार ईश्वर का अनुभव करने के लिए बाहरी कर्मकांडों और पाखंड की आवश्यकता नहीं होती। उन्होंने धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकांडों को व्यर्थ बताया और यह संदेश दिया कि केवल प्रेम और सत्य का मार्ग ही ईश्वर तक पहुँचाता है। कबीर के दोहों में इस दृष्टिकोण की झलक मिलती है:
"पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते तो चाकी भली, पीस खाए संसार।"
इस प्रकार कबीर ने स्पष्ट किया कि धार्मिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा और बाहरी दिखावे के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। उनका यह दृष्टिकोण समाज में व्याप्त आडंबर और अंधविश्वास को चुनौती देता है।
कबीर की भाषा और शैली
कबीर की भाषा आम जनता की भाषा थी। उन्होंने सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया, जिसमें हिंदी, अवधी, पंजाबी और ब्रज भाषा के शब्द शामिल थे। उनकी शैली सीधी, सरल और प्रभावशाली थी। वे अपनी बात को सीधे ढंग से कहते थे और उनके दोहे जीवन की सच्चाईयों को सामने लाते हैं। उनकी सरल भाषा और सटीक अभिव्यक्ति ने उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाया।
निष्कर्ष
कबीर का साहित्य और उनके विचार मध्ययुगीन समाज के प्रगतिशील स्वरूप को दर्शाते हैं। उन्होंने धार्मिक आडंबर, जातिवाद, और धार्मिक कट्टरता का विरोध करते हुए मानवता, समानता और भक्ति का संदेश दिया। कबीर का दृष्टिकोण उनके समय के हिसाब से बेहद क्रांतिकारी था, जो समाज की जड़ताओं को तोड़ता और प्रगति की दिशा में प्रेरित करता है।
इस प्रकार, कबीर को मध्ययुगीन भारत का प्रगतिशील रचनाकार माना जा सकता है जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी और अपनी रचनाओं के माध्यम से मानवता के मूल्यों को पुनःस्थापित किया। उनकी शिक्षाएँ और विचार आज भी प्रासंगिक हैं, और वे समाज को एकता, प्रेम और सहिष्णुता का संदेश देते हैं।