'पृथ्वीराज रासों की प्रामाणिकता अप्रामाणिकता से जुड़े विभिन्न मुद्दों का विश्लेषण कीजिए। - IGNOU Solved Assigment (MHD 01 - 2024-2025)

पृथ्वीराज रासो हिन्दी साहित्य की महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित रचनाओं में से एक है। इसे भारत के वीर राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान की वीरता और उनके जीवन पर आधारित महाकाव्य माना जाता है, जो उनके दरबारी कवि चंदबरदाई द्वारा रचित बताया गया है। पृथ्वीराज रासो को लेकर इतिहासकारों और विद्वानों के बीच इसके प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के संबंध में अनेक मतभेद हैं। आइए, इस पर विस्तार से चर्चा करते हैं।


1. रचना काल और भाषा का विवाद

पृथ्वीराज रासो का रचना काल और उसकी भाषा दोनों ही विवादास्पद हैं। इसका रचना काल 12वीं सदी के अंत में माना जाता है, परंतु इसका लिखित प्रमाण 16वीं सदी से ही उपलब्ध है। विद्वानों का मानना है कि यदि यह रचना 12वीं सदी में होती, तो इसके भाषा और शैली में अपभ्रंश का प्रभाव होता, परन्तु यह रचना ब्रज भाषा में लिखी पाई जाती है। भाषा की इस शैली का उपयोग 16वीं सदी में अधिक होता था। इसलिए इसे 12वीं सदी की कृति मानना संदिग्ध है।

2. चंदबरदाई का अस्तित्व और रचना की प्रामाणिकता

पृथ्वीराज रासो का लेखक चंदबरदाई को माना गया है, जो पृथ्वीराज के दरबारी कवि थे। हालांकि, इतिहास में चंदबरदाई के वास्तविक अस्तित्व को लेकर भी अनेक संदेह हैं। इस रचना में चंदबरदाई का वर्णन और उनका पृथ्वीराज के प्रति स्नेह और समर्पण अत्यंत आदर्शवादी तरीके से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही, जिस तरह से युद्ध और घटनाओं का वर्णन किया गया है, वह वास्तविकता की अपेक्षा अतिशयोक्ति पर आधारित प्रतीत होता है। यह संदेह उत्पन्न करता है कि चंदबरदाई ने यह रचना की भी है या नहीं।

3. ऐतिहासिक तथ्यों से भिन्नता

पृथ्वीराज रासो में वर्णित अनेक घटनाएँ और युद्ध के वर्णन ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाते। जैसे कि तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज की हार और उनके मरण के तरीके का उल्लेख पृथ्वीराज रासो में जिस तरह से किया गया है, वह ऐतिहासिक दृष्टिकोण से असत्य प्रतीत होता है। इसका कथानक एक वीरतापूर्ण दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अनेक अतिशयोक्तिपूर्ण घटनाओं और चमत्कारिक तत्वों का समावेश है। इतिहासकारों का मानना है कि रासो में व्यक्त कथाएँ ऐतिहासिक साक्ष्यों से मेल नहीं खातीं और वे अधिकतर काव्यात्मक शैली में सजाई गई हैं।

4. विभिन्न संस्करणों में भिन्नताएँ

पृथ्वीराज रासो के विभिन्न संस्करण प्रचलित हैं, जिनमें से छोटे, मध्यम और बड़े संस्करणों का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक संस्करण में कथानक, घटनाओं और पात्रों के वर्णन में भिन्नता पाई जाती है। यह भी विवाद का विषय है कि किस संस्करण को वास्तविक और प्रामाणिक माना जाए। पृथ्वीराज रासो का ‘बड़ा रासो’ विशेष रूप से विवादास्पद है, क्योंकि इसमें अनेक ऐसे प्रसंग हैं जो इतिहास और तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। विद्वानों का मानना है कि बड़े संस्करण में बाद में अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का जोड़ किया गया है।

5. काव्यगत अतिशयोक्ति और काल्पनिकता

पृथ्वीराज रासो एक महाकाव्य है, जिसमें काव्य शैली में राजा की वीरता और उनके शौर्य का अत्यधिक महिमामंडन किया गया है। इस प्रकार के महाकाव्यों में अतिशयोक्ति और कल्पना का प्रयोग प्रचुर मात्रा में होता है। यही कारण है कि पृथ्वीराज रासो में वर्णित घटनाओं को ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक मानना कठिन हो जाता है। जैसे कि पृथ्वीराज और जयचंद की शत्रुता, पृथ्वीराज का मोहम्मद गौरी को पराजित करना, ये सभी घटनाएँ ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खातीं।

6. ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टिकोण

पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर संदेह का एक और कारण यह है कि इसे एक ऐतिहासिक ग्रंथ की बजाय साहित्यिक दृष्टि से अधिक मान्यता प्राप्त है। इतिहासकारों का मानना है कि रासो का उद्देश्य पृथ्वीराज के जीवन की वास्तविक घटनाओं का वर्णन करना नहीं था, बल्कि एक वीरता की गाथा के रूप में उनके प्रति श्रद्धा अर्पित करना था। इसे एक महाकाव्य की भांति देखा जाना चाहिए, न कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में।

7. अन्य ऐतिहासिक स्रोतों का अभाव

पृथ्वीराज रासो के संदर्भ में अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों या अभिलेखों में इसका उल्लेख नहीं मिलता, जिससे इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर संदेह और गहरा हो जाता है। यदि यह 12वीं सदी की रचना होती, तो इसके किसी न किसी रूप में उस समय के ऐतिहासिक दस्तावेजों या अभिलेखों में इसका उल्लेख अवश्य मिलता। इसके अभाव में यह मानना कठिन हो जाता है कि पृथ्वीराज रासो उस काल की सजीव रचना है।

निष्कर्ष
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता के विभिन्न पहलुओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह रचना ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणिक नहीं है, परन्तु साहित्यिक दृष्टि से इसका अत्यधिक महत्त्व है। इसे एक महाकाव्य के रूप में देखा जा सकता है, जो वीरता, शौर्य और देशभक्ति की भावना को प्रकट करता है। हालांकि इसमें अतिशयोक्ति, कल्पना और काल्पनिकता के तत्व प्रचुर मात्रा में हैं, लेकिन यह भारतीय जनमानस में पृथ्वीराज की वीरता की भावना को अमर कर देता है। इस प्रकार, पृथ्वीराज रासो एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ न होकर साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर है, जो अपनी काव्यात्मकता और वीर गाथाओं के लिए हमेशा स्मरणीय रहेगा।

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